Friday, July 19, 2013

027-दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जम`अ करते हो क्यों रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहां क़िस्मत आज़माने जाएं
तू ही जब ख़नजर-आज़मा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियां खा के बे-मज़ा न हुआ

है ख़बर गरम उन के आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ

कया वह नमरूद की ख़ुदाई थी
बनदगी में मिरा भला न हुआ

जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूं है कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवा न हुआ

रहज़नी है कि दिल-सितानी है
ले के दिल दिल-सितां रवानह हुआ

कुछ तो पढ़ये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब ग़ज़ल-सरा न हुआ

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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