Thursday, July 18, 2013

186-गुलशन को तिरी सोहबत

गुलशन को तिरी सोहबत, अज़ बसकि ख़ुश आई है
हर ग़ुनचे का गुल होना, आग़ोश कुशाई है

वाँ कुंग्गुर-ए-इस्तिग़ना, हर दम है बुलन्दी पर
याँ नाले को और उल्टा, दा`वा-ए-रसाई है

अज़ बसकि सिखाता है ग़म, ज़ब्त के अन्दाज़े
जो दाग़ नज़र आया, इक चश्म नुमाई है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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