हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी, कारगर
`इश्क़ का उसको गुमाँ हम बेज़बानों पर नहीं
ज़ब्त से मतलब ब जुज़ वारस्तगी दीगर नहीं
दामन-ए-तिम्साल आब-ए-आइन: से तर नहीं
बाइस-ए-ईज़ा है बर-हम-ख़ुरदन-ए-बज़्म-ए-सुरूर
लख़्त लख़्त-ए-शीश:-ए-बशकसतह जुज़ नश्तर नहीं
दिल को इज़हार-ए-सुख़न अँदाज़-ए-फ़तह अल-बाब है
याँ सरीर-ए-ख़ामह ग़ैर अज़-इसतिकाक-ए-दर नहीं
-मिर्ज़ा ग़ालिब
`इश्क़ का उसको गुमाँ हम बेज़बानों पर नहीं
ज़ब्त से मतलब ब जुज़ वारस्तगी दीगर नहीं
दामन-ए-तिम्साल आब-ए-आइन: से तर नहीं
बाइस-ए-ईज़ा है बर-हम-ख़ुरदन-ए-बज़्म-ए-सुरूर
लख़्त लख़्त-ए-शीश:-ए-बशकसतह जुज़ नश्तर नहीं
दिल को इज़हार-ए-सुख़न अँदाज़-ए-फ़तह अल-बाब है
याँ सरीर-ए-ख़ामह ग़ैर अज़-इसतिकाक-ए-दर नहीं
-मिर्ज़ा ग़ालिब
No comments:
Post a Comment