Thursday, July 18, 2013

120-वारस्त: इस से हैं

वारस्त: इस से हैं, कि मुहब्बत ही क्यों न हो
कीजे हमारे साथ, `अदावत ही क्यों न हो

छोड़ा न मुझ में ज़ो`फ़ ने रंग इख़्तिलात का
है दिल प बार, नक़्श-ए-मुहब्बत ही क्यों न हो

है मुझ को तुझ से तज़किर:-ए-ग़ैर का गिला
हरचन्द बरसबील-ए-शिकायत ही क्यों न हो

पैदा हुई है, कहते हैं, हर दर्द की दवा
यूं हो, तो चार:-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही क्यों न हो

डाला न बेकसी ने किसी से मु`आमला
अपने से खेंचता हूँ, ख़जालत ही क्यों न हो

है आदमी बजा-ए-ख़ुद, इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं, ख़ल्वत ही क्यों न हो

हँगाम:-ए-ज़बूनी-ए-हिम्मत है, इन्फ़ि`आल
हासिल न कीजे दह्‌र से, `इबरत ही क्यों न हो

वारस्तगी बहान:-ए-बेगानगी नहीं
अपने से कर, न ग़ैर से, वहशत ही क्यों न हो

मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई
`उम्र-ए-`अज़ीज़ सर्फ़-ए-`इबादत ही क्यों न हो

उस फ़ितन:-ख़ू के दर से अब उठते नहीं, असद
उस में हमारे सर प क़यामत ही क्यों न हो

-मिर्ज़ा ग़ालिब

No comments:

Post a Comment