का`बे में जा रहा, तो न दो ता`न:, क्या कहीं
भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को
ता`अत में ता, रहे न मै-ओ-अँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो, कोई लेकर बिहिश्त को
हूँ मुन्हरिफ़ न क्यों, रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त, क़लम-ए-सरनविश्त को
ग़ालिब, कुछ अपनी स`इ से लहना नहीं मुझे
ख़िरमन जले, अगर न मलख़ खाए किश्त को
-मिर्ज़ा ग़ालिब
भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को
ता`अत में ता, रहे न मै-ओ-अँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो, कोई लेकर बिहिश्त को
हूँ मुन्हरिफ़ न क्यों, रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त, क़लम-ए-सरनविश्त को
ग़ालिब, कुछ अपनी स`इ से लहना नहीं मुझे
ख़िरमन जले, अगर न मलख़ खाए किश्त को
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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