Thursday, July 18, 2013

122-धोता हूँ जब मैं पीने को

धोता हूँ जब मैं पीने को, उस सीमतन के पाँव
रखता है, ज़िद से, खेंच के बाहर लगन के पाँव

दी सादगी से, जान, पड़ूँ कोहकन के पाँव
हैहात, क्यों न टूट गये, पीरज़न के पाँव

भागे थे हम बहुत, सो उसी की सज़ा है यह
हो कर असीर दाबते हैं, राहज़न के पाँव

मरहम की जुस्तजू में, फिरा हूँ जो दूर दूर
तन से सिवा फ़िगार हैं, इस ख़स्त:तन के पाँव

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी, कि बा`द-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद ब ख़ुद मिरे, अँदर कफ़न के पाँव

है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक, कि हर तरफ़
उड़ते हुए-उलझते हैं मुर्ग़-ए-चमन के पाँव

शब को किसी के ख़्वाब में आया न हो कहीं
दुखते हैं आज उस बुत-ए-नाज़ुक-बदन के पाँव

ग़ालिब, मिरे कलाम में क्योंकर मज़ा न हो
पीता हूँ धो के ख़ुसर्व-ए-शीरीं-सुख़न के पाँव

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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