Thursday, July 18, 2013

139-क्या तंग हम सितमज़दगाँ

क्या तंग हम सितमज़दगाँ का जहान है
जिसमें कि एक बैज़:-ए-मोर आसमान है

है कायनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
परतव से आफ़ताब के, ज़र्रे में जान है

हालाँकि है यह सीली-ए-ख़ारा से लाल: रंग
ग़ाफ़िल को मेरे शीशे प मै का गुमान है

की उसने गर्म सीन:-ए-अहल-ए-हवस में जा
आवे न क्यों पसन्द, कि ठंडा मकान है

क्या ख़ूब, तुम ने ग़ैर को बोस: नहीं दिया
बस चुप रहो, हमारे भी मुंह में ज़बान है

बैठा है जो कि साय:-ए-दीवार-ए-यार में
फ़रमाँरवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दोस्तान है

हस्ती का ए`तिबार भी ग़म ने मिटा दिया
किस से कहूँ कि दाग़ जिगर का निशान है

है बारे ए`तिमाद-ए-वफ़ा-दारी इस क़दर
ग़ालिब, हम इस में ख़ुश हैं, कि नामेहरबान है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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