Thursday, July 18, 2013

140-दर्द से मेरे है तुझ को

दर्द से मेरे है तुझ को बेक़रारी हाए-हाए
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत-शि`आरी हाए-हाए

तेरे दिल में गर, न था आशोब-ए-ग़म का हौसल:
तू ने फिर क्यों की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए-हाए

क्यों मिरी ग़मख़्वारगी का तुझ को आया था ख़याल
दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्तदारी हाए-हाए

`उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
`उम्र को भी तो नहीं है पायदारी हाए-हाए

ज़हर लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए-ज़िन्दगी
या`नी तुझ से थी उसे नासाज़गारी हाए-हाए

गुलफ़िशानीहा-ए-नाज़-ए-जल्व: को क्या हो गया
ख़ाक पर होती है तेरी लाल:-कारी हाए-हाए

शर्म-ए-रुस्वाई से, जा छुपना नक़ाब-ए-ख़ाक में
ख़त्म है उल्फ़त की तुझ पर पर्द:-दारी हाए-हाए

ख़ाक में नामूस-ए-पैमान-ए-मुहब्बत मिल गई
उठ गई दुनिया से राह-ओ-रस्म-ए-यारी हाए-हाए

हाथ ही तेग़-आज़मा का काम से जाता रहा
दिल प इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए-कारी हाए-हाए

किस तरह काटे कोई, शबहा-ए-तार-ए- बर्शकाल
है नज़र ख़ू-करद:-ए-अख़्तर-शुमारी हाए-हाए

गोश महजूर-ए-पयाम-ओ-चश्म महरूम-ए-जमाल
एक दिल, तिस पर यह नाउम्मीदवारी हाए-हाए

`इश्क़ ने पकड़ा न था, ग़ालिब, अभी वहशत का रंग
रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए-ख़्वारी हाए-हाए

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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