सरगश्तगी में, `आलम-ए-हस्ती से यास है
तस्कीं को दे नवीद, कि मरने की आस है
लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवार: की ख़बर
अब तक वह जानता है, कि मेरे ही पास है
कीजे बयाँ सुरूर-ए-तब-ए-ग़म कहाँ तलक
हर मू मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास है
है वह ग़ुरूर-ए-हुस्न से बेगान:-ए-वफ़ा
हरचन्द उस के पास दिल-ए-हक़-शिनास है
पी, जिस क़दर मिले, शब-ए-महताब में शराब
इस बलग़मी मिज़ाज को गर्मी ही रास है
हर यक मकान को है मकीं से शरफ़, असद
मजनूँ जो मर गया है, तो जंगल उदास है
-मिर्ज़ा ग़ालिब
तस्कीं को दे नवीद, कि मरने की आस है
लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवार: की ख़बर
अब तक वह जानता है, कि मेरे ही पास है
कीजे बयाँ सुरूर-ए-तब-ए-ग़म कहाँ तलक
हर मू मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास है
है वह ग़ुरूर-ए-हुस्न से बेगान:-ए-वफ़ा
हरचन्द उस के पास दिल-ए-हक़-शिनास है
पी, जिस क़दर मिले, शब-ए-महताब में शराब
इस बलग़मी मिज़ाज को गर्मी ही रास है
हर यक मकान को है मकीं से शरफ़, असद
मजनूँ जो मर गया है, तो जंगल उदास है
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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