Thursday, July 18, 2013

141-सरगश्तगी में `आलम-ए-हस्ती

सरगश्तगी में, `आलम-ए-हस्ती से यास है
तस्कीं को दे नवीद, कि मरने की आस है

लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवार: की ख़बर
अब तक वह जानता है, कि मेरे ही पास है

कीजे बयाँ सुरूर-ए-तब-ए-ग़म कहाँ तलक
हर मू मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास है

है वह ग़ुरूर-ए-हुस्न से बेगान:-ए-वफ़ा
हरचन्द उस के पास दिल-ए-हक़-शिनास है

पी, जिस क़दर मिले, शब-ए-महताब में शराब
इस बलग़मी मिज़ाज को गर्मी ही रास है

हर यक मकान को है मकीं से शरफ़, असद
मजनूँ जो मर गया है, तो जंगल उदास है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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