एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिक्खा था, सो भी मिट गया
ज़ाहिरन काग़ज़ तिरे ख़त का ग़लत बरदार है
जी जले ज़ौक़-ए-फ़ना की नातमामी पर न क्यों
हम नहीं जलते, नफ़स हरचन्द आतिशबार है
आग से, पानी में बुझते वक़्त, उठती है सदा
हर कोई दरमान्दगी में नाले से नाचार है
है वही बदमस्ती-ए-हर ज़र्र: का ख़ुद `उज़्रख़्वाह
जिस के जल्वे से ज़मीं ता आसमाँ सरशार है
मुझसे मत कह, तू हमें कहता था अपनी ज़िन्दगी
ज़िन्दगी से भी मिरा जी इन दिनों बेज़ार है
आँख की तस्वीर सरनामे प खेंची है, कि ता
तुझ प खुल जावे कि उसको हसरत-ए-दीदार है
-मिर्ज़ा ग़ालिब
ज़ाहिरन काग़ज़ तिरे ख़त का ग़लत बरदार है
जी जले ज़ौक़-ए-फ़ना की नातमामी पर न क्यों
हम नहीं जलते, नफ़स हरचन्द आतिशबार है
आग से, पानी में बुझते वक़्त, उठती है सदा
हर कोई दरमान्दगी में नाले से नाचार है
है वही बदमस्ती-ए-हर ज़र्र: का ख़ुद `उज़्रख़्वाह
जिस के जल्वे से ज़मीं ता आसमाँ सरशार है
मुझसे मत कह, तू हमें कहता था अपनी ज़िन्दगी
ज़िन्दगी से भी मिरा जी इन दिनों बेज़ार है
आँख की तस्वीर सरनामे प खेंची है, कि ता
तुझ प खुल जावे कि उसको हसरत-ए-दीदार है
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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