Thursday, July 18, 2013

156-कारगाह-ए-हस्ती में

कारगाह-ए-हस्ती में, लाल: दाग़-सामाँ है
बर्क़-ए-ख़िरमन-ए-राहत, ख़ून-ए-गर्म-ए-देह्क़ाँ है

ग़ुन्च: ता शिगुफ़्तनहा, बर्ग-ए-`आफ़ियत मा`लूम
बावुजूद-ए-दिल-जम`ई, ख़्वाब-ए-गुल परीशाँ है

हम से रंज-ए-बेताबी किस तरह उठाया जाए
दाग़ पुश्त-ए-दस्त-ए-`अज्ज़, शो’ल: ख़स ब दन्दां है

`इश्क़ के तग़ाफ़ुल से हरज़ह-गर्द है `आलम
रू-ए-शश-जिहत आफ़ाक़ पुश्त-ए-चश्म-ए-ज़िन्दाँ है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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