Thursday, July 18, 2013

174-जिस बज़्म में तू नाज़

जिस बज़्म में, तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
जाँ, कालबुद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे

साए-की तरह साथ फिरें सर्व-ओ-सनोबर
तू उस क़द-ए-दिलकश से, जो गुलज़ार में आवे

तब नाज़-ए-गिराँ मायगी-ए-अश्क बजा है
जब लख़्त-ए-जिगर दीद:-ए-ख़ूँबार में आवे

दे मुझ को शिकायत की इजाज़त, कि सितमगर
कुछ तुझ को मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे

उस चश्म-ए-फ़ुसूँगर का, अगर पाए-इशार:
तूती की तरह आइन: गुफ़्तार में आवे

काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से, यारब
इक आबिल:-पा वादी-ए-पुरख़ार में आवे

मर जाऊँ न क्यों रश्क से, जब वह तन-ए-नाज़ुक
आग़ोश-ए-ख़म-ए-हल्क़:-ए-ज़ुन्नार में आवे

ग़ारतगर-ए-नामूस न हो, गर हवस-ए-ज़र
क्यों शाहिद-ए-गुल, बाग़ से बाज़ार में आवे

तब चाक-ए-गरीबाँ का मज़ा है, दिल-ए-नालाँ
जब इक नफ़स उलझा हुआ, हर तार में आवे

आतिशकद: है सीन: मिरा, राज़-ए-निहाँ से
अय वाए, अगर मा`रिज़-ए-इज़हार में आवे

गंजीन:-ए-मा`नी का तिलिस्म उसको समझिये
जो लफ़्ज़ कि ग़ालिब, मिरे अश`आर में आवे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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