Thursday, July 18, 2013

178-शिकवे के नाम से

शिकवे के नाम से, बेमेहर ख़फ़ा होता है
यह भी मत कह, कि जो कहिये, तो गिला होता है

पुर हूँ मैं शिकवे से यूं, राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िये, फिर देखिये, क्या होता है

गो समझता नहीं, पर हुस्न-ए-तलाफ़ी देखो
शिकव:-ए-जौर, से सरगर्म-ए-जफ़ा होता है

`इश्क़ की राह में, है चर्ख़-ए-मुकौकब की वह चाल
सुस्त-रू जैसे कोई आबल: पा होता है

क्यों न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद, कि हम
आप उठा लाते हैं, गर तीर ख़ता होता है

ख़ूब था, पहले से होते जो हम अपने बदख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है

नाल: जाता था, परे `अर्श से मेरा, और अब
लब तक आता है जो ऐसा ही रसा होता है

ख़ाम: मेरा, कि वह है बारबद-ए-बज़्म-ए-सुख़न
शाह की मदह में, यूं नग़म:सरा होता है

अय शहनशाह-ए-कवाकिब-सिपह-ओ-मेहर`अलम
तेरे इकराम का हक़, किस से अदा होता है

सात इक़लीम का हासिल जो फ़राहम कीजे
तो वह लशकर का तिरे ना`ल-बहा होता है

हर महीने में, जो यह बद्र से होता है हिलाल
आस्ताँ पर तिरे मह नासिय: सा होता है

मैं जो गुस्ताख़ हूँ आईन-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी में
यह भी तेरा ही करम ज़ौक़ फ़िज़ा होता है

रखियो, ग़ालिब, मुझे इस तल्ख़नवाई में मु`आफ़
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

No comments:

Post a Comment