Tuesday, August 20, 2013

0560-जिन जिन को था

जिन जिन को था यह `इश्क़ का आज़ार, मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए

होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़
ईसा-ओ-ख़िज़्र क्या सभी यक बार मर गए

यूँ कानों कान गुल ने न जाना चमन में, आह
सर को पटक के हम, पस-ए-दीवार मर गए

सद कारवाँ वफ़ा है, कोई पूछता नहीं
गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए

मजनूँ न दश्त में है, न फ़रहाद कोह में
था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िन्दगी, वे यार मर गए

गर ज़िन्दगी यही है, जो करते हैं हम असीर
तो वे ही जी गए, जो गिरफ़्तार मर गए

अफ़सोस वे शहीद कि जो क़त्ल-गाह में
लगते ही उस के हाथ की तलवार मर गए

तुझ से दो-चार होने की हसरत के मुब्तिला
जब जी हुआ वबाल तो नाचार मर गए

घबरा न मीर इश्क़ में उस सहल-ए-ज़ीस्त पर
जब बस चला न कुछ तो मिरे यार मर गए

-मीर तक़ी मीर

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1 comment:

Smriti Roy said...

maza aa gaya padh ke goya mata e dil ke kharidaar mar gaye

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