Thursday, July 18, 2013

125-तुम जानो तुम को ग़ैर से जो

तुम जानो, तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझ को भी पूछते रहो, तो क्या गुनाह हो

बचते नहीं मुआख़ज़:-ए-रोज़-ए-हश्र से
क़ातिल अगर रक़ीब है, तो तुम गवाह हो

क्या वह भी बेगुनह-कुश-ओ-हक़ ना-शिनास हैं
माना कि तुम बशर नहीं, ख़ुर्शीद-ओ-माह हो

उभरा हुआ नक़ाब में है उन के, एक तार
मरता हूँ मैं, कि यह न किसी की निगाह हो

जब मैकद: छुटा, तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो, मदर्स: हो, कोई ख़ानक़ाह हो

सुनते हैं जो बिहिश्त की ता`रीफ़, सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे, वह तिरा जल्व:गाह हो

ग़ालिब भी गर न हो, तो कुछ ऐसा ज़रर नहीं
दुनिया हो यारब, और मिरा बादशाह हो

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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