Thursday, July 18, 2013

126-गई वह बात कि हो गुफ़्तगू

गई वह बात, कि हो गुफ़्तगू तो क्योंकर हो
कहे से कुछ न हुआ, फिर कहो, तो क्योंकर हो

हमारे ज़हन में, उस फ़िक़्र का है नाम विसाल
कि गर न हो, तो कहाँ जाएँ, हो तो, क्योंकर हो

अदब है और यही कशमकश, तो क्या कीजे
हया है और यही गोमगो, तो क्योंकर हो

तुम्हीं कहो, कि गुज़ारा सनम-परस्तों का
बुतों की हो अगर ऐसी ही ख़ू, तो क्योंकर हो

उलझते हो तुम, अगर देखते हो आईन:
जो तुम से शहर में हों एक दो, तो क्योंकर हो

जिसे नसीब हो, रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वह शख़्स दिन न कहे रात को, तो क्योंकर हो

हमें फिर उन से उमीद, और उन्हें हमारी क़द्र
हमारी बात ही पूछें न वो, तो क्योंकर हो

ग़लत न था, हमें ख़त पर, गुमाँ तसल्ली का
न माने दीद:-ए-दीदार जो, तो क्योंकर हो

बताओ उस मिश.: को देख कर, कि मुझ को क़रार
यह नेश हो रग-ए-जाँ में फ़रो, तो क्योंकर हो

मुझे जुनूँ नहीं, ग़ालिब, वले बक़ौल-ए-हुज़ूर
फ़िराक़-ए-यार में तस्कीन हो, तो क्योंकर हो

-मिर्ज़ा ग़ालिब

No comments:

Post a Comment