Thursday, July 18, 2013

127-किसी को दे के दिल कोई

किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ां क्यों हो
न हो जब दिल ही सीने में, तो फिर मुंह में ज़बाँ क्यों हो

वह अपनी ख़ू न छोड़ेंगे, हम अपनी वज़`अ क्यों छोड़ें
सुबुक सर बन के क्या पूछें, कि हम से सरगिराँ क्यों हो

किया ग़मख़्वारी ने रुस्वा, लगे आग इस मुहब्बत को
न लावे ताब जो ग़म की, वह मेरा राज़दाँ क्यों हो

वफ़ा कैसी, कहाँ का `इश्क़, जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर, अय संग दिल, तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो

क़फ़स में, मुझसे रूदाद-ए-चमन कहते, न डर, हमदम
गिरी है जिस प कल बिजली, वह मेरा आशियाँ क्यों हो

यह कह सकते हो, हम दिल में नहीं हैं, पर यह बतलाओ
कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो, तो आँखों से निहाँ क्यों हो

ग़लत है जज़्ब-ए-दिल का शिकव:, देखो जुर्म किस का है
न खेंचो गर तुम अपने को, कशाकश दरमियाँ क्यों हो

यह फ़ितन:, आदमी की ख़ान:वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के, दुश्मन उस का आसमाँ क्यों हो

यही है आज़माना, तो सताना किस को कहते हैं
`अदू के हो लिये जब तुम, तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो

कहा तुम ने कि, क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुस्वाई
बजा कहते हो, सच कहते हो, फिर कहियो कि हाँ क्यों हो

निकाला चाहता है काम क्या ता`नों से तू, ग़ालिब
तिरे बेमेहर कहने से, वह तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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