Thursday, July 18, 2013

134-है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न

है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्द: लबों से
तंग आए हैं हम, ऐसे ख़ुशामद तलबों से

है दौर-ए-क़दह, वजह-ए-परीशानी-ए-सहबा
यक बार लगा दो ख़ुम-ए-मै मेरे लबों से

रिन्दान-ए-दर-ए-मैकद:, गुस्ताख़ हैं ज़ाहिद
ज़िन्हार न होना तरफ़, उन बेअदबों से

बेदाद-ए-वफ़ा देख, कि जाती रही आख़िर
हरचन्द मिरी जान को था रब्त लबों से

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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