Thursday, July 18, 2013

133-बिसात-ए-`अज्ज़ में था

बिसात-ए-`अज्ज़ में था एक दिल, यक क़तर: ख़ूँ वह भी
सो रहता है, ब अँदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ, वह भी

रहे उस शोख़ से आज़ुर्द: हम चन्दे, तक़ल्लुफ़ से
तक़ल्लुफ़ बरतरफ़ था, एक अँदाज़-ए-जुनूँ वह भी

ख़याल-ए-मर्ग, कब तस्कीं दिल-ए-आज़ुर्द: को बख़्शे
मिरे दाम-ए-तमन्ना में है इक सैद-ए-ज़ुबूँ, वह भी

न करता काश नाल:, मुझ को क्या मा`लूम था, हमदम
कि होगा बा`इस-ए-अफ़ज़ाइश-ए-दर्द-ए-दुरूँ वह भी

न इतना बुर्रिश-ए-तेग़-ए-जफ़ा पर नाज़ फ़रमाओ
मिरे दरिया-ए-बेताबी में है इक मौज-ए-ख़ूँ वह भी

मै-ए-`इश्रत की ख़्वाहिश, साक़ी-ए-गर्दूं से क्या कीजे
लिये बैठा है, इक दो चार जाम-ए-वाश.गूँ वह भी

मिरे दिल में है, ग़ालिब, शौक़-ए-वस्ल ओ शिकव:-ए-हिजराँ
ख़ुदा वह दिन करे, जो उस से मैं यह भी कहूँ, वह भी

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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