Thursday, July 18, 2013

132-मस्जिद के ज़ेर-ए-साय:

मस्जिद के ज़ेर-ए-साय:, ख़राबात चाहिये
भौं पास आँख, क़िबल:-ए-हाजात चाहिये

`आशिक़ हुए-हैं आप भी, एक और शख़्स पर
आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिये

दे दाद, अय फ़लक, दिल-ए-हसरत परस्त की
हाँ कुछ न कुछ तलाफ़ी-ए-माफ़ात चाहिये

सीखे हैं महरुख़ों के लिये हम मुसव्विरी
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिये

मै से ग़रज़ निशात है किस रूसियाह को
इक गून: बेख़ुदी मुझे दिन रात चाहिये

है रंग-ए-लाल:-ओ-गुल-ओ-नसरीं, जुदा जुदा
हर रंग में बहार का इस्बात चाहिये

सर पा-ए-ख़ुम प चाहिये हँगाम-ए-बेख़ुदी
रू सू-ए-क़िबल: वक़्त-ए-मुनाजात चाहिये

या`नी ब हस्ब-ए-गर्दिश-ए-पैमान:-ए-सिफ़ात
`आरिफ़ हमेश: मस्त-ए-मै-ए-ज़ात चाहिये

नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से, ग़ालिब फ़ुरू`अ को
ख़ामोशी ही से निकले है, जो बात चाहिये

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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