Thursday, July 18, 2013

201-क्यों न हो चश्म-ए-बुताँ

क्यों न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल, क्यों न हो
या`नी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है

मरते मरते, देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए-नाकामी, कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है

`आरिज़-ए-गुल देख रू-ए-यार याद आया, असद
जोशिश-ए-फ़स्ल-ए-बहारी इश्तियाक़ अँगेज़ है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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