Thursday, July 18, 2013

203-देख कर दर पर्द:

देख कर दर पर्द: गर्म-ए-दामन अफ़शानी मुझे
कर गई वाबस्त:-ए-तन मेरी `उरयानी मुझे

बन गया तेग़-ए-निगाह-ए-यार का संग-ए-फ़साँ
मरहबा मैं, क्या मुबारक है गिराँ जानी मुझे

क्यों न हो बे-इल्तिफ़ाती, उस की ख़ातिर जम`अ है
जानता है महव-ए-पुरसिशहा-ए-पिन्हानी मुझे

मेरे ग़म ख़ाने की क़िस्मत जब रक़म होने लगी
लिख दिया मिंजुमल:-ए-असबाब-ए-वीरानी, मुझे

बदगुमाँ होता है वह काफ़िर न होता, काश के
इस क़दर ज़ौक़-ए-नवा-ए-मुर्ग़-ए-बुस्तानी मुझे

वाए, वाँ भी शोर-ए-महशर ने न दम लेने दिया
ले गया था गोर में, ज़ौक़-ए-तन आसानी मुझे

वा`द: आने का वफ़ा कीजे यह क्या, अँदाज़ है
तुम ने क्यों सौंपी है, मेरे घर की दरबानी मुझे

हाँ निशात-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी वाह, वाह
फिर हुआ है ताज़: सौदा-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे

दी मिरे भाई को हक़ ने, अज़ सर-ए-नौ ज़िन्दगी
मीरज़ा यूसुफ़, है ग़ालिब, यूसुफ़-ए-सानी मुझे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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