Thursday, July 18, 2013

206-कभी नेकी भी उस के जी में

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझसे
जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझसे

ख़ुदाया, जज़्ब:-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खैंचता हूँ और खिंचता जाए है मुझसे

वह बदख़ू, और मेरी दास्तान-ए-शौक़ तूलानी
`इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाए है मुझसे

उधर वह बदगुमानी है, इधर यह नातवानी है
न पूछा जाए है उससे, न बोला जाए है मुझसे

संभलने दे मुझे, अय नाउमीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार, छूटा जाए है मुझसे

तक़ल्लुफ़ बरतरफ़, नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वह देखा जाए, कब यह ज़ुल्म देखा जाए है मुझसे

हुए-हैं पाँव ही पहले, नबर्द-ए-`इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाए है मुझसे, न ठहरा जाए है मुझसे

क़यामत है, कि होवे मुद्द`ई का हमसफ़र, ग़ालिब
वह काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझसे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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