Thursday, July 18, 2013

215-जब तक दहान-ए-ज़ख़्म

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
मुश्किल, है तुझ से राह-ए-सुख़न वा करे कोई

`आलम ग़ुबार-ए-वहशत-ए-मजनूँ है सरबसर
कब तक ख़याल-ए-तुर्र:-ए-लैला करे कोई

अफ़सुर्दगी नहीं तरब-इंशा-ए-इल्तिफ़ात
हाँ, दर्द बन के दिल में मगर जा करे कोई

रोने से, अय नदीम, मलामत न कर मुझे
आख़िर कभी तो, `उक़द:-ए-दिल वा करे कोई

चाक-ए-जिगर, से जब रह-ए-पुरसिश न वा हुई
क्या फ़ायद:, कि जैब को रुस्वा करे कोई

लख़्त-ए-जिगर से है रग-ए-हर ख़ार, शाख़-ए-गुल
ता चन्द बाग़बानी-ए-सहरा करे कोई

नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ार: सोज़
तू वह नहीं, कि तुझ को तमाशा करे कोई

हर संग-ओ-ख़िश्त है सदफ़-ए-गौहर-ए-शिकस्त
नुकसाँ नहीं, जुनूँ से जो सौदा करे कोई

सरबर हुई न वा`द:-ए-सब्र-आज़मा से `उम्र
फ़ुर्सत कहाँ, कि तेरी तमन्ना करे कोई

है वहशत-ए-तबी`अत-ए-ईजाद: यास ख़ेज़
यह दर्द वह नहीं, कि न पैदा करे कोई

बेकारी-ए-जुनूँ को है सर पीटने का शग़ल
जब हाथ टूट जाएँ, तो फिर क्या करे कोई

हुस्न-ए-फ़ुरोग़-ए-शम`-ए-सुख़न दूर है, असद
पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई

वहशत कहाँ कि बेख़ुदी इंशा करे कोई
हस्ती को लफ़्ज़-ए-मा`नी-ए-`अनक़ा करे कोई

जो कुछ है महव-ए-शोख़ी-ए-अबरू-ए-यार है
आँखों को रख के ताक़ प देखा करे कोई

`अर्ज़-ए-सिरिशक पर है फ़ज़ा-ए-ज़मान: तंग
सहरा कहाँ कि द`वत-ए-दरिया करे कोई

वह शोख़ अपने हुस्न प मग़रूर है असद
दिखला के उसको आइन: तोड़ा करे कोई

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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