Saturday, July 20, 2013

005-दिल मिरा सोज़-ए-निहां

दिल मिरा, सोज़-ए-निहाँ से बेमहाबा जल गया
आतिश-ए-ख़ामोश के मानिन्द गोया जल गया

दिल में, ज़ौक़-ए-वस्ल-ओ-याद-ए यार तक, बाक़ी नहीं
आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया

मैं 'अदम से भी परे हूँ वर्न: ग़ाफ़िल, बारहा
मेरी आह-ए-आतिशीं से बाल-ए `अन्क़ा जल गया

अर्ज़ कीजे, जौहर-ए-अन्देश: की गरमी कहाँ
कुछ ख़याल आया था वहशत का, कि सहरा जल गया

दिल नहीं, तुझ को दिखाता वर्न: दाग़ों की बहार
उस चिराग़ां का, करूं क्या, कार-फ़रमा जल गया

मैं हूं और अफ़सुर्दगी की आरज़ू, ग़ालिब, कि दिल
देख कर तर्ज़-ए-तपाक-ए अहल-ए-दुनिया जल गया

ख़ान-मान-ए `आशिक़ां दूकान-ए आतिश-बाज़ है
शु`लह-रू जब हो गए गर्म-ए तमाशा जल गया

ता कुजा अफ़सोस-ए गरमीहा-ए सुहबत अय ख़याल
दिल ब सोज़-ए आतिश-ए दाग़-ए-तमन्ना जल गया

है असद बे-गान:-ए अफ़सुर्दगी अय बे-कसी
दिल ज़ अंदाज़-ए-तपाक-ए अहल-ए-दुनिया जल गया

-मिर्ज़ा ग़ालिब


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1 comment:

Anonymous said...

too much..
kitabo me chhapte hai chahat ke kisse
haqikat ki duniya me chahat nahi hai..


sp

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