सरापा रेहन-ए-'इश्क़-ओ-नागुज़ीर-ए-उल्फ़त-ए-हस्ती
इबादत बर्क़ की करता हूं और अफ़सोस हासिल का
बक़द्र-ए-ज़र्फ़ है साक़ी ख़ुमार-ए-तश्न:-कामी भी
जो तू दरिया-ए-मै है, तो मैं ख़मियाज़: हूँ साहिल का
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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इसी विषय पर, मगर विपरीत अर्थ का, ग़ालिब का एक और शेर है (अर्थ के लिए यहाँ क्लिक करें):
हरीफ़-ए-जोशिश-ए-दरिया नहीं ख़ुद्दारि-ए-साहिल
जहाँ साक़ी हो तू, बातिल है दा`वा होशियारी का
इबादत बर्क़ की करता हूं और अफ़सोस हासिल का
बक़द्र-ए-ज़र्फ़ है साक़ी ख़ुमार-ए-तश्न:-कामी भी
जो तू दरिया-ए-मै है, तो मैं ख़मियाज़: हूँ साहिल का
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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इसी विषय पर, मगर विपरीत अर्थ का, ग़ालिब का एक और शेर है (अर्थ के लिए यहाँ क्लिक करें):
हरीफ़-ए-जोशिश-ए-दरिया नहीं ख़ुद्दारि-ए-साहिल
जहाँ साक़ी हो तू, बातिल है दा`वा होशियारी का
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