Saturday, July 20, 2013

014-बज़्म-ए-शाहनशाह में

यह ग़ज़ल ग़ालिब ने १९५२ में कही थी।

बज़्म-ए-शाहनशाह में अश`आर का दफ़्तर खुला
रखयो यारब, यह दर-ए-गंजीन:-ए-गौहर खुला

शब हुई, फिर अंजुम-ए-रख़्शिन्द: का मंज़र खुला
इस तक़ल्लुफ़ से, कि गोया बुतकदे का दर खुला

गरचे: हूँ दीवान: पर क्यों दोस्त का खाऊँ फ़रेब
आस्तीं में दश्न: पिन्हाँ हाथ में नश्तर खुला

गो न समझूँ उस की बातें गो न पाऊँ उस का भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वह परी-पैकर खुला

है ख़याल-ए-हुस्न में, हुस्न-ए-`अमल का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है, मेरी गोर के अंदर, खुला

मुंह न खुलने पर, है वह `आलम, कि देखा ही नहीं
ज़ुल्फ़ से बढ़कर, नक़ाब उस शोख़ के मुंह पर खुला

दर प रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया
जितने `अरसे में मिरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

क्यों अंधेरी है शब-ए-ग़म, है बलाओं का नुज़ूल
आज उधर ही को रहेगा, दीद:-ए-अख़्तर खुला

क्या रहूँ ग़ुर्बत में ख़ुश जब हो हवादिस का यह हाल
नाम: लाता है वतन से नाम:-बर अकसर खुला

उसकी उम्मत में हूं मैं, मेरे रहें क्यों काम बंद
वास्ते जिस शह के, ग़ालिब! गुम्बद-ए-बेदर खुला

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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