Saturday, July 20, 2013

015-शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल

शब, कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से, ज़हर:-ए-अब्र आब था
शो`ल:-ए-जव्वाल: हर इक हल्क़:-ए-गिरदाब था

वाँ करम को, `उज़्र-ए-बारिश, था `इनांगीर-ए-ख़िराम
गिरिये से याँ, पंब:-ए-बालिश कफ़-ए-सैलाब था

वाँ, ख़ुदआराई को, था मोती पिरोने का ख़याल
याँ, हुजूम-ए-अश्क़ में तार-ए-निगह नायाब था

जलव:-ए-गुल ने किया था वाँ चिराग़ां आब-ए-जू
याँ, रवां मिश़गान-ए-चश्म-ए तर से ख़ून-ए-नाब था

याँ, सर-ए-पुरशोर बेख़्वाबी से था दीवार-जू
वाँ, वह फ़र्क़-ए-नाज़ महव-ए-बालिश-ए-कमख़्वाब था

याँ, नफ़स करता था रौशन शम`अ-ए-बज़्म-ए-बेख़ुदी
जलव:-ए-गुल, वाँ, बिसात-ए-सोहबत-ए-अहबाब था

फ़र्श से ता `अर्श, वाँ तूफ़ां था मौज-ए-रंग का
याँ ज़मीं से आसमां तक सोख़तन का बाब था

नागहाँ इस रंग से ख़ूंनाब: टपकाने लगा
दिल, कि ज़ौक़-ए-काविश-ए-नाख़ुन से लज़्ज़तयाब था

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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