Friday, July 19, 2013

017-एक एक क़तरे का

एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर, वदी`अत-ए मिश़गान-ए यार था

अब मैं हूं और मातम-ए-यक-शहर-ए-आरज़ू
तोड़ा जो तू ने आइन:, तिमसाल-दार था

गलियों में मेरी ना`श को खेंचे फिरो, कि मैं
जां-दाद:-ए-हवा-ए सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्र: मिस्ल-ए जौहर-ए-तेग़ आबदार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा, तो कम हुए प, ग़म-ए-रोज़गार था

-मिर्ज़ा ग़ालिब


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