Friday, July 19, 2013

018-बसकि दुश्वार है

बसकि दुश्वार है, हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं, इन्साँ होना

गिरिय: चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है, बयाबाँ होना

वाय दीवानगी-ए-शौक़, कि हर दम मुझ को
आप जाना उधर, और आप ही हैराँ होना

जल्व: अज़-बसकि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आइन: भी, चाहे है मिज़्गाँ होना

`इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
`ईद-ए-नज़्ज़ार: है शमशीर का `उरियाँ होना

ले गए ख़ाक में हम, दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात
तू हो, और आप बसद रंग गुलिस्ताँ होना

`इशरत-ए-पार:-ए-दिल, ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना
लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिगर, ग़र्क़-ए-नमकदाँ होना

की मिरे क़त्ल के बा`द, उस ने जफ़ा से तौब:
हाए, उस ज़ूद-पशेमाँ का पशेमाँ होना

हैफ़, उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत, ग़ालिब
जिस की क़िस्मत में हो `आशिक़ का गरीबाँ होना

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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Talat Mahmood/ तलत महमूद 


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