Friday, July 19, 2013

028-गिला है शौक़ को

गिला है शौक़ को, दिल में भी तंगि-ए-जा का
गुहर में महव हुआ इज़्तिराब दरिया का

यह जानता हूँ, कि तू और पासुख़-ए-मक्तूब
मगर, सितम-ज़द: हूँ, ज़ौक़-ए-ख़ाम:-फ़र्सा का

हिना-ए-पा-ए-ख़िज़ाँ है बहार अगर है यही
दवाम कुलफ़त-ए-ख़ातिर है `ऐश दुनिया का

ग़म-ए-फ़िराक़ में तकलीफ़-ए-सैर-ए-बाग़ न दो
मुझे दिमाग़ नहीं ख़न्द:हा-ए-बेजा का

हनोज़ महरमी-ए-हुस्न को तरस्त: हूँ
करे है हर बुन-ए-मू काम चश्म-ए-बीना का

दिल उसको, पहले ही नाज़-ओ-अदा से दे बैठे
हमें दिमाग़ कहाँ, हुस्न के तक़ाज़ा का

न कह, कि गिरिय: ब मिक़दार-ए-हसरत-ए-दिल है
मिरी निगाह में है जम`-ओ-ख़रज दरिया का

फ़लक को देख के, करता हूँ उसको याद, असद
जफ़ा में उस की है अँदाज़ कार-फ़रमा का

मिरा शुमूल हर इक दिल के पेच-ओ-तब में है
मैं मुद्द`आ हूँ तपिश-नामह-ए-तमन्ना का

-मिर्ज़ा ग़ालिब

No comments:

Post a Comment