मैं, और बज़्म-ए-मै से यूं तश्न:-काम आऊँ
गर मैंने की थी तौब: साक़ी को क्या हुआ था
है एक तीर, जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं
वह दिन गए, कि अपना दिल से जिगर जुदा था
दरमान्दगी में ग़ालिब, कुछ बन पड़े तो जानूँ
जब रिश्त: बे-गिरह था नाख़ुन गिरह-कुशा था
-मिर्ज़ा ग़ालिब
गर मैंने की थी तौब: साक़ी को क्या हुआ था
है एक तीर, जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं
वह दिन गए, कि अपना दिल से जिगर जुदा था
दरमान्दगी में ग़ालिब, कुछ बन पड़े तो जानूँ
जब रिश्त: बे-गिरह था नाख़ुन गिरह-कुशा था
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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