घर हमारा जो न रोते भी, तो वीराँ होता
बहर, गर बहर न होता, तो बयाबाँ होता
तंगि-ए-दिल का गिला क्या, यह वह काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता, तो परीशाँ होता
बा`द-ए-यक `उम्र-ए-वर`अ, बार तो देता, बारे
काश, रिज़्वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता
-मिर्ज़ा ग़ालिब
बहर, गर बहर न होता, तो बयाबाँ होता
तंगि-ए-दिल का गिला क्या, यह वह काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता, तो परीशाँ होता
बा`द-ए-यक `उम्र-ए-वर`अ, बार तो देता, बारे
काश, रिज़्वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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