Friday, July 19, 2013

032-घर हमारा जो न रोते भी

घर हमारा जो न रोते भी, तो वीराँ होता
बहर, गर बहर न होता, तो बयाबाँ होता

तंगि-ए-दिल का गिला क्या, यह वह काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता, तो परीशाँ होता

बा`द-ए-यक `उम्र-ए-वर`अ, बार तो देता, बारे
काश, रिज़्वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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