Friday, July 19, 2013

034-यक ज़र्र:-ए-ज़मीं नहीं बेकार

यक ज़र्र:-ए-ज़मीं नहीं बेकार, बाग़ का
याँ जाद:ह भी, फ़तील: है लाले के दाग़ का

बे-मै किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही
खेंचा है `अज्ज़-ए-हौसल: ने ख़त अयाग़ का

बुलबुल के कार-ओ-बार प हैं, ख़न्द:हा-ए-गुल
कहते हैं जिस को `इश्क़, ख़लल है दिमाग़ का

ताज़: नहीं है नश्श:-ए-फ़िक़्र-ए-सुख़न मुझे
तिरयाकि-ए-क़दीम हूँ दूद-ए-चराग़ का

सौ बार बन्द-ए-`इश्क़ से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें, कि दिल ही `अदू है फ़राग़ का

बेख़ून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह ग़ुबार
यह मैकद: ख़राब है, मै के सुराग़ का
बाग़-ए-शिगुफ़्त: तेरा बिसात-ए-निशात-ए-दिल
अब्र-ए-बहार, ख़ुमकद: किसके दिमाग़ का

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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