Friday, July 19, 2013

035-वह मिरी चीन-ए-जबीं से

वह मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
राज़-ए-मक्तूब ब बेरब्ति-ए-`उन्वाँ समझा

यक अलिफ़ बेश नहीं, सैक़ल-ए-आईन: हनोज़
चाक करता हूँ मैं, जब से कि गरीबाँ समझा

शर्ह-ए-असबाब-ए-गिरफ़्तारि-ए-ख़ातिर, मत पूछ
इस क़दर तंग हुआ दिल, कि मैं ज़िन्दाँ समझा

बदगुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम
रुख़ प हर क़तर: `अरक़, दीद:-ए-हैराँ समझा

`अज्ज़ से अपने यह जाना, कि वह बदख़ू होगा
नब्ज़-ए-ख़स से तपिश-ए-शो’ल:-ए-सोज़ाँ समझा

सफ़र-ए-`इश्क़ में की ज़ो`फ़ ने राहत तलबी
हर क़दम साए-को मैं अपने शबिस्ताँ समझा

था गुरेज़ाँ मिज़:-ए-यार से दिल ता दम-ए-मर्ग
दफ़`-ए-पैकान-ए-क़ज़ा उस क़दर आसाँ समझा

दिल दिया जान के क्यों उसको वफ़ादार, असद
ग़लती की, कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा

हम ने वहशत-कद:-ए-बज़्म-ए-जहाँ में जूं शम`अ
शोल:-ए-`इश्क़ को अपना सर-ओ-सामाँ समझा

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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