Friday, July 19, 2013

040-शब कि वह मजलिस

शब कि वह मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था
रिश्त:-ए-हर शम`अ ख़ार-ए-किसवत-ए-फ़ानूस था

मशहद-ए-`आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना
किस क़दर यारब हलाक-ए-हसरत-ए-पाबूस था

हासिल-ए-उल्फ़त न देखा, जुज़ शिकस्त-ए-आरज़ू
दिल ब दिल पैवस्त:, गोया यक लब-ए-अफ़सूस था

क्या कहूँ बीमारी-ए-ग़म की फ़राग़त का बयाँ
जो कि खाया ख़ून-ए-दिल, बे-मिन्नत-ए-कैमूस था

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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