Friday, July 19, 2013

041-आईन: देख अपना-सा मुंह

आईन: देख अपना-सा मुंह ले के रह गये
साहिब को दिल न देने प कितना ग़ुरूर था

क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिये
उस की ख़ता नहीं है, यह मेरा क़सूर था

ज़ो`फ़-ए-जुनूँ को वक़्त-ए-तपिश दर भी दूर था
इक घर में मुख़्तसर-सा बयाबाँ ज़रूर था

अय वाए-ग़फ़लत-ए-निगह-ए-शौक़ वर्न: याँ
हर पारह संग लख़्त-ए-दिल-ए-कोह-ए-तूर था

दर्स-ए-तपिश है बर्क़ को अब जिस के नाम से
वह दिल है यह कि जिस का तख़ल्लुस सबूर था

हर रंग में जला असद-ए-फ़ितन:-इंतज़ार
परवान:-ए-तजल्ली-ए-शम`-ए-ज़ुहूर था

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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