Friday, July 19, 2013

042-`अर्ज़-ए-नियाज़-ए-`इश्क़ के

`अर्ज़-ए-नियाज़-ए-`इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल प नाज़ था मुझे, वह दिल नहीं रहा

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शम`-ए-कुश्त:, दर-ख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा

मरने की, अय दिल और ही तदबीर कर, कि मैं
शायान-ए-दस्त-ओ-ख़ंजर-ए-क़ातिल नहीं रहा

बर-रू-ए-शश जिहत दर-ए-आईन: बाज़ है
याँ इम्तियाज़-ए-नाक़िस-ओ-कामिल नहीं रहा

वा कर दिये हैं शौक़ ने, बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह, अब कोई हाइल नहीं रहा

गो मैं रहा रहीन-ए-सितमहा-ए-रोज़गार
लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गई, कि वाँ
हासिल, सिवाए-हसरत-ए-हासिल नहीं रहा

बेदाद-ए-`इश्क़ से नहीं डरता, मगर असद
जिस दिल प नाज़ था मुझे, वह दिल नहीं रहा

हरचन्द मैं हूँ तूती-ए-शीरीं-सुख़न वले
आईन: आह मेरे मुक़ाबिल नहीं रहा

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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