Friday, July 19, 2013

044-ज़िक्र उस परीवश का

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब, आख़िर था जो राज़दाँ अपना

मै वह क्यों बहुत पीते, बज़्म-ए-ग़ैर में, यारब
आज ही हुआ मंज़ूर, उन को इम्तिहाँ अपना

मंज़र इक बुलन्दी पर और हम बना सकते
`अर्श से इधर होता काश-के मकाँ अपना

दे वह जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे आश्ना निकला, उन का पासबाँ अपना

दर्द-ए-दिल लिख़ूँ कब तक, जाऊँ उन को दिखला दूँ
उंगलियाँ फ़िगार अपनी, ख़ाम: ख़ूँचकाँ अपना

घिसते घिसते मिट जाता, आपने `अबस बदला
नंग-ए-सिजद: से मेरे संग-ए-आस्ताँ अपना

ता करे न ग़म्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में, हमने हमजबाँ अपना
हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ग़ालिब, दुश्मन आसमाँ अपना

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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