Friday, July 19, 2013

046-ग़ाफ़िल ब वहम-ए-नाज़

ग़ाफ़िल ब वहम-ए-नाज़ ख़ुद आरा है वर्न: याँ
बेशान:-ए-सबा नहीं तुर्र: गियाह का

बज़्म-ए-क़दह से `ऐश तमन्ना न रख, कि रंग
सैद-ए-ज़दाम जस्त: है, उस दाम-गाह का

रहमत अगर क़बूल करे, क्या ब`ईद है
शर्मिन्दगी से `उज़्र न करना गुनाह का

मक़्तल को किस निशात से जाता हूँ मैं, कि है
पुर-गुल, ख़याल-ए-ज़ख़्म से, दामन निगाह का

जाँ दर-हवा-ए-यक निगह-ए-गर्म है, असद
परवान: है वकील, तिरे दाद ख़्वाह का

`उज़लत-गुज़ीन-ए-बज़्म हैं वामाँदगान-ए-दीद
मीना-ए-मै है आबिलह पा-ए-निगाह का

हर गाम आबिले से है दिल दर तह-ए-क़दम
क्या बीम अहल-ए-दर्द को सख़ती-ए-राह का

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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