Friday, July 19, 2013

049-`इश्रत-ए-क़तर: है

`इश्रत-ए-क़तर: है, दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना, है दवा हो जाना

तुझ से क़िस्मत में मिरी, सूरत-ए- क़ुफ़्ल-ए-अबजद
था लिखा, बात के बनते ही, जुदा हो जाना

दिल हुआ कशमकश-ए-चार:-ए-ज़हमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस `उक़्दे का वा हो जाना

अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम, अल्लाह अल्लाह
इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना

ज़ो`फ़ से गिरिय: मुबद्दल ब दम-ए-सर्द हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना

दिल से मिटना तिरी अँगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हो गया, गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना

है मुझे, अब्र-ए-बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते ग़म-ए-फ़ुर्क़त में, फ़ना हो जाना

गर नहीं नक्हत-ए-गुल को तिरे कूचे की हवस
क्यों है, गर्द-ए-रह-ए-जौलान-ए-सबा हो जाना

बख़्शे है जल्व:-ए-गुल ज़ौक़-ए-तमाशा, ग़ालिब
चश्म को चाहिये हर रंग में वा हो जाना

ताकि तुझ पर खुले ए`जाज़-ए-हवा-ए-सैक़ल
देख बरसात में सब्ज़ आइने का हो जाना

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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