Thursday, July 18, 2013

054-आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो

आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो, बाज़ार-ए-दोस्त
दूद-ए-शम`-ए-कुश्त: था, शायद ख़त-ए-रुख़सार-ए-दोस्त

अय दिल-ए-ना-`आक़िबत-अन्देश ज़ब्त-ए-शौक़ कर
कौन ला सकता है ताब-ए-जल्व:-ए-दीदार-ए-दोस्त

ख़ान:-वीराँ-साज़ी-ए-हैरत तमाशा कीजिये
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम हूँ रफ़्त:-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त

`इश्क़ में, बेदाद-ए-रश्क-ए-ग़ैर ने मारा मुझे
कुश्त:-ए-दुश्मन हूँ आख़िर, गरचे: था बीमार-ए-दोस्त

चश्म-ए-मा रौशन, कि उस बेदाद का दिल शाद है
दीद:-ए-पुरख़ूँ हमारा, साग़र-ए-सरशार-ए-दोस्त

ग़ैर, यूं करता है मेरी पुरसिश, उस के हिज्र में
बे-तक़ल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़मख़्वार-ए-दोस्त

ताकि मैं जानूँ, कि है उस की रसाई वाँ तलक
मुझ को देता है, पयाम-ए-वा`द:-ए-दीदार-ए-दोस्त

जबकि मैं करता हूँ अपना शिकव:-ए-ज़ो`फ़-ए-दिमाग़
सर करे है वह हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-`अम्बर-बार-ए-दोस्त

चुपके चुपके मुझ को रोते देख पाता है, अगर
हंस के करता है बयान-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार-ए-दोस्त

मेहरबानीहा-ए-दुश्मन की शिकायत कीजिये
ता बयाँ कीजे, सिपास-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-दोस्त

यह ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसन्द आती है आप
है रदीफ़-ए- शे`र में, ग़ालिब ज़ बस तकरार-ए-दोस्त

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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