Thursday, July 18, 2013

060-घर जब बना लिया

घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
जानेगा अब भी तू न मिरा घर कहे बग़ैर

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूँ किसी के दिल की मैं क्योंकर, कहे बग़ैर

काम उस से आ पड़ा है, कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम, सितमगर कहे बग़ैर

जी में ही कुछ नहीं है हमारे, वगरन: हम
सर जाए या रहे, न रहें पर कहे बग़ैर

छोड़ूंगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर

मक़सद है नाज़-ओ-ग़मज़:, वले गुफ़्तगू में काम
चलता नहीं है, दश्न:-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर

हरचन्द, हो मुशाहद:-ए-हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है, बाद:-ओ-साग़र कहे बग़ैर

बहरा हूँ मैं, तो चाहिये दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात, मुक़र्रर कहे बग़ैर

ग़ालिब, न कर हुज़ूर में तू बार बार `अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर, कहे बग़ैर

-मिर्ज़ा ग़ालिब

No comments:

Post a Comment