Thursday, July 18, 2013

062-लरज़ता है मिरा दिल

लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मैं हूँ वह क़तर:-ए-शबनम, कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर

न छोड़ी हज़रत-ए-यूसुफ़ ने याँ भी ख़ान:-आराई
सफ़ेदी दीद:-ए-या`क़ूब की, फिरती है ज़िन्दाँ पर

फ़ना-ता`लीम-ए-दर्स-ए-बेख़ुदी हूँ उस ज़माने से
कि मजनूँ लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए-दबिस्ताँ पर

फ़राग़त किस क़दर रहती मुझे, तशवीश-ए-मरहम से
बहम गर सुलह करते पार:हा-ए-दिल नमकदाँ पर

नहीं इक़लीम-ए-उल्फ़त में कोई तूमार-ए-नाज़ ऐसा
कि पुश्त-ए-चश्म से जिस के न होवे मुहर `उन्वाँ पर

मुझे अब देख कर अब्र-ए-शफ़क़-आलूद: याद आता
कि फ़ुर्क़त में तिरी, आतिश बरसती थी गुलिस्ताँ पर

ब जुज़ परवाज़-ए-शौक़-ए-नाज़ क्या बाक़ी रहा होगा
क़यामत इक हवा-ए-तुन्द है, ख़ाक-ए-शहीदाँ पर

न लड़ नासेह से, ग़ालिब, क्या हुआ, गर उसने शिद्दत की
हमारा भी तो, आख़िर, ज़ोर चलता है गरीबाँ पर

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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