Thursday, July 18, 2013

063-है बसकि हर इक उन के इशारे में

है बसकि, हर इक उन के इशारे में निशाँ और
करते हैं मुहब्बत, तो गुज़रता है गुमाँ और

यारब, वह न समझे हैं, न समझेंगे मिरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझ को ज़बाँ और

अबरू से है क्या उस निगह-ए-नाज़ को, पैवन्द
है तीर मुक़र्रर, मगर उस की है कमाँ और

तुम शहर में हो, तो हमें क्या ग़म, जब उठेंगे
ले आएंगे बाज़ार से, जा कर दिल-ओ-जाँ और

हरचन्द सुबुक-दस्त हुए, बुत शिकनी में
हम हैं, तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और

है ख़ून-ए-जिगर जोश में, दिल खोल के रोता
होते जो कई दीद:-ए-ख़ूँनाब:-फ़िशाँ और

मरता हूँ उस आवाज़ प, हरचन्द सर उड़ जाए
जल्लाद को, लेकिन, वह कहे जाएँ, कि हाँ और

लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और

लेता, न अगर दिल तुम्हें देता, कोई दम चैन
करता, जो न मरता, कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ां और

पाते नहीं जब राह, तो चढ़ जाते हैं नाले
रुकती है मिरी तब`अ, तो होती है रवाँ और

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं, कि ग़ालिब का है अँदाज़-ए-बयाँ और

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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