Thursday, July 18, 2013

067-लाज़िम था कि देखो मिरा

यह ग़ज़ल मर्सिया है जिसे ग़ालिब ने अपने भांजे आरिफ़ की मृत्यु पर लिखा था । ग़ालिब ने इन्हें गोद लिया था और इनकी मृत्यु 1852 में 36 वर्ष की आयु में हुई थी । हाली ने यादगार-ए-ग़ालिब में लिखा है कि ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ  'आरिफ़' से मिर्ज़ा ग़ालिब की बड़ी घनिष्टता थी । कुछ तो निकट संबंध के कारण और ज्यादातर इस वजह से कि वे अत्यंत विचारशील स्वभाव वाले और मधुरभाषी थे । मिर्ज़ा उन्हें हद से ज्यादा चाहते थे । इसलिए जब युवावस्था में उनकी मृत्यु हो गई तो मिर्ज़ा और उनकी बीवी पर सख़्त हादसा गुज़रा । मिर्ज़ा ने उनके मरने पर नौहे के रूप में यह ग़ज़ल लिखी, जो अत्यंत आलंकारिक और मार्मिक है ।

लाज़िम था कि देखो मिरा रस्त: कोई दिन और
तन्हा गये क्यों अब रहो तन्हा कोई दिन और

मिट जाएगा सर, गर तिरा पत्थर न घिसेगा
हूँ दर प तिरे नासिय:-फ़र्सा कोई दिन और

आये हो कल और आज ही कहते हो, कि जाऊँ
माना, कि हमेश: नहीं अच्छा, कोई दिन और

जाते हुए-कहते हो, क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और

हाँ अय फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी `आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता, जो न मरता कोई दिन और

तुम माह-ए-शब-ए-चारदुहम थे, मिरे घर के
फिर क्यों न रहा घर का वह नक़्शा कोई दिन और

तुम कौन-से थे ऐसे खरे, दाद-ओ-सितद के
करता मलकुल-मौत तक़ाज़ा, कोई दिन और

मुझसे तुम्हें नफ़रत सही, नय्यर से लड़ाई
बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और

गुज़री न बहरहाल यह मुद्दत ख़ुश-ओ-नाख़ुश
करना था, जवाँमर्ग, गुज़ारा कोई दिन और

नादाँ हो जो कहते हो कि क्यों जीते हैं ग़ालिब
क़िस्मत में है, मरने की तमन्ना कोई दिन और

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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