Thursday, July 18, 2013

069-हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं

हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं, फ़ुसून-ए-नियाज़
दु`आ क़बूल हो यारब कि `उम्र-ए-ख़िज़्र दराज़

न हो बहरज़: बयाबाँ-नवर्द-ए-वहम-ए-वुजूद
हनोज़ तेरे तसव्वुर में है नशेब-ओ-फ़राज़

विसाल जल्व: तमाशा है, पर दिमाग़ कहाँ
कि दीजे आइन:-ए-इंतज़ार को परदाज़

हर एक ज़र्र:-ए-`आशिक़ है आफ़ताब परस्त
गई न ख़ाक हुए पर, हवा-ए-जल्व:-ए-नाज़

न पूछ वुस`अत-ए-मै-ख़ान:-ए-जुनूँ, ग़ालिब
जहाँ यह कास:-ए-गर्दूं, है एक ख़ाक-अँदाज़

फ़रेब-ए-स`नत-ए-ईजाद: का तमाशा देख
निगाह `अक्स-फ़रोश-ओ-ख़याल आइन:-साज़

ज़ बसकि जल्व:-ए-सैयाद हैरत-आरा है
उड़ी है सफ़हह-ए-ख़ातिर से सूरत-ए-परवाज़

हुजूम-ए-फ़िक़्र से दिल मिस्ल-ए-मौज लरज़ाँ है
कि शीश: नाज़ुक-ओ-सहबा है आब-गीन:-गुदाज़

असद से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ वह मा`नी है
कि खेंचिये पर-ए-ताइर से सूरत-ए-परवाज़

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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