Thursday, July 18, 2013

073-मुज़हदह अय ज़ौक़-ए-असीरी

मुज़हदह अय ज़ौक़-ए-असीरी, कि नज़र आता है
दाम-ए-ख़ाली, क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास

जिगर-ए-तश्न-ए-आज़ार, तसल्ली न हुआ
जू-ए-ख़ूँ हम ने बहाई बुन-ए-हर ख़ार के पास

मुंद गईं खोलते ही खोलते आँखें, हय, हय
ख़ूब वक़्त आये तुम, इस `आशिक़-ए-बीमार के पास

मैं भी रुक रुक के न मरता, जो ज़बाँ के बदले
दश्न: इक तेज़-सा होता, मिरे ग़मख़्वार के पास

दहन-ए-शेर में जा बैठिये, लेकिन अय दिल
न खड़े हूजिये ख़ूबान-ए-दिल-आज़ार के पास

देख कर तुझको, चमन बसकि नुमू करता है
ख़ुद ब ख़ुद पहुंचे है गुल, गोश:-ए-दस्तार के पास

मर गया फोड़ के सर, ग़ालिब-ए-वहशी, हय, हय
बैठना उस का वह आकर तिरी दीवार के पास

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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