Thursday, July 18, 2013

076-रुख़-ए-निगार से

रुख़-ए-निगार से, है सोज़-ए-जाविदानी-ए-शम`अ
हुई है आतिश-ए-गुल, आब-ए-ज़िन्दगानी-ए-शम`अ

ज़बान-ए-अहल-ए-ज़बाँ में, है मर्ग ख़ामोशी
यह बात बज़्म में, रौशन हुई ज़बानी-ए-शम`अ

करे है सिर्फ़ ब `ईमा-ए-शो’ल: क़िस्स: तमाम
ब तर्ज़-ए-अहल-ए-फ़ना, है फ़सान:-ख़्वानि-ए-शम`अ

ग़म उसको हसरत-ए-परवान: का है, अय शो`ल:
तिरे लरज़ने से ज़ाहिर है नातवानी-ए-शम`अ

तिरे ख़याल से रूह इहतिज़ाज़ करती है
ब जल्व:-रेज़ी-ए-बाद-ओ-ब परफ़िशानी-ए-शम`अ

नशात-ए-दाग़-ए-ग़म-ए-`इश्क़ की बहार, न पूछ
शिगुफ़्तगी है शहीद-ए-गुल-ए-ख़िज़ानी-ए-शम`अ

जले है देख के बालीन-ए-यार पर मुझको
न क्यों हो दिल प मिरे, दाग़-ए-बदगुमानी-ए-शम`अ

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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