Thursday, July 18, 2013

078-ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ, तिफ़्लान-ए-बे-परवा, नमक
क्या मज़ा होता अगर पत्थर में भी होता, नमक

गर्द-ए-राह-ए-यार है सामान-ए-नाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल
वर्न: होता है जहाँ में किस क़दर पैदा, नमक

मुझ को अरज़ानी रहे, तुझ को मुबारक हूजियो
नाल:-ए-बुलबुल का दर्द, और ख़न्द:-ए-गुल का नमक

शोर-ए-जौलाँ था किनार-ए-बहर पर किसका, कि आज
गर्द-ए-साहिल है, ब ज़ख़्म-ए-मौज:-ए-दरिया, नमक

दाद देता है मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर की, वाह वाह
याद करता है मुझे, देखे है वह जिस जा, नमक

छोड़ कर जाना तन-ए-मजरूह-ए-`आशिक़ हैफ़ है
दिल तलब करता है ज़ख़्म, और माँगे हैं आ`ज़ा, नमक

ग़ैर की मिन्नत न खेंचूंगा प-ए-तौफ़ीर-ए-दर्द
ज़ख़्म मिस्ल-ए-ख़न्द:-ए-क़ातिल है, सर-ता-पा नमक

याद हैं, ग़ालिब तुझे वह दिन, कि वज्द-ए-ज़ौक़ में
ज़ख़्म से गिरता, तो मैं पलकों से चुनता था नमक

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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